गांधारी के भाई और दुर्योधन के मामा शकुनि को कौन नहीं जानता? महाभारत में
शकुनि का किरदार अहम रहा है। कहते हैं कि बुद्धिबल, शस्त्रबल से भी ज्यादा
खतरनाक होता है। महाभारत में कृष्ण, शकुनि, भीष्म, विदुर, द्रोण आदि ऐसे
लोग थे जिन्होंने अपने बुद्धिबल का प्रयोग किया।
महाभारत की गाथा में शकुनि अपनी कुटिल बुद्धि के लिए विख्यात माना
जाता है। कौरवों के मामाश्री शकुनि मामा को कौरवों का शुभचिंतक माना जाता
है। शकुनि मामा दुर्योधन का कदम-कदम पर मार्गदर्शन करते रहते थे। दुर्योधन
भी मामा शकुनि की इच्छा के बगैर एक कदम भी नहीं उठाते थे। यह बात जहां
गांधारी को खटकती थी, वहीं धृतराष्ट्र को भी। हम आपको अगले पन्नों पर
बताएंगे कि क्यों शकुनि दुर्योधन सहित अन्य कौरवों का दुश्मन था और किस तरह
शकुनि का अंत हुआ।
शकुनि गांधार नरेश राजा सुबाल के पुत्र थे। शकुनि का जन्म गांधार के राजा
सुबाल के राजप्रासाद में हुआ था। वह माता गांधारी का छोटा भाई था। वह जन्म
से ही विलक्षण बुद्धि का स्वामी था अतः राजा सुबाल को अत्यंत प्रिय था।
कई छोटे-छोटे राज्य मिलकर आर्याना क्षेत्र बना था। इसी क्षेत्र में था
गांधार राज्य। आज के उत्तर अफगानिस्तान को उस काल में गांधार कहा जाता था,
जो कि कम्बोज के पास था। गांधार राज्य में ही हिन्दूकुश पर्वतमाला थी।
कंदहार या कंधार गांधार का ही अपभ्रंश है।
कौरवों को छल व कपट की राह सिखाने वाले शकुनि उन्हें पांडवों का विनाश
करने में पग-पग पर मदद करते थे, लेकिन उनके मन में कौरवों के लिए केवल बदले
की भावना थी।
उस समय गांधार राजकुमारी के रूप-लावण्य की चर्चा पूरे आर्यावर्त में थी।
ऐसे में पितामह भीष्म ने धृतराष्ट्र का विवाह गांधार की राजकुमारी से करने
की सोची। पहले उन्होंने सोचा कि गांधारी का अपहरण कर के लाया जाए, लेकिन
अम्बा और अम्बालिका ने उन्हें ऐसा करने से मना कर दिया था अतः पितामह भीष्म
गांधार की राजसभा में धृतराष्ट्र का रिश्ता लेकर गए, लेकिन उन्हें मालूम
था कि उनका प्रस्ताव ठुकरा दिया जाएगा।
तब पितामह भीष्म ने क्रोधपूर्ण लहजे में कहा कि मैं तुम्हारे इस छोटे से
साम्राज्य पर चढ़ाई करूंगा और इसे समाप्त कर दूंगा। अंततः राजा सुबाल को
भीष्म के आगे झुकना पड़ा और अत्यंत क्षोभ के साथ उनको अपनी सुन्दर पुत्री
का विवाह अंधे राजकुमार धृतराष्ट्र के साथ करना पड़ा।
गांधारी ने भी दुखपूर्वक आजीवन आंखों पर पट्टी बांधे रखने की प्रतिज्ञा
की। गांधारी से महाराज धृतराष्ट्र को 100 पुत्रों की प्राप्ति हुई थी, जो
आगे चलकर कौरवों के नाम से प्रसिद्ध हुए। हालांकि वे कौरव नहीं थे।
माना जाता है कि गांधारी का विवाह महाराज धृतराष्ट्र से करने से पहले
ज्योतिषियों ने सलाह दी कि गांधारी के पहले विवाह पर संकट है अत: इसका पहला
विवाह किसी ओर से कर दीजिए, फिर धृतराष्ट्र से करें। इसके लिए ज्योतिषियों
के कहने पर गांधारी का विवाह एक बकरे से करवाया गया था। बाद में उस बकरे
की बलि दे दी गई।
कहा जाता है कि गांधारी को किसी प्रकार के प्रकोप से मुक्त करवाने के लिए
ही ज्योतिषियों ने यह सुझाव दिया था। इस कारणवश गांधारी प्रतीक रूप में
विधवा मान ली गईं और बाद में उनका विवाह धृतराष्ट्र से कर दिया गया। ऐसा
क्यों किया इसके पीछे और भी कारण थे।
गांधारी एक विधवा थीं, यह सच्चाई बहुत समय तक कौरव पक्ष को पता नहीं चली।
यह बात जब महाराज धृतराष्ट्र को पता चली तो वे बहुत क्रोधित हो उठे।
उन्होंने समझा कि गांधारी का पहले किसी से विवाह हुआ था और वह न मालूम किस
कारण मारा गया।
धृतराष्ट्र के मन में इसको लेकर दुख उत्पन्न हुआ और उन्होंने इसका दोषी
गांधारी के पिता राजा सुबाल को माना। धृतराष्ट्र ने गांधारी के पिता राजा
सुबाल को पूरे परिवार सहित कारागार में डाल दिया।
कारागार में उन्हें खाने के लिए केवल एक व्यक्ति का भोजन दिया जाता था।
केवल एक व्यक्ति के भोजन से भला सभी का पेट कैसे भरता? यह पूरे परिवार को
भूखे मार देने की साजिश थी। राजा सुबाल ने यह निर्णय लिया कि वह यह भोजन
केवल उनके सबसे छोटे पुत्र को ही दिया जाए ताकि उनके परिवार में से कोई तो
जीवित बच सके।
एक-एक करके सुबाल के सभी पुत्र मरने लगे। सब लोग अपने हिस्से का चावल
शकुनि को देते थे ताकि वह जीवित रहकर कौरवों का नाश कर सके। सुबाल ने अपने
सबसे छोटे बेटे शकुनि को प्रतिशोध के लिए तैयार किया। मृत्यु से पहले सुबाल
ने धृतराष्ट्र से शकुनि को छोड़ने की विनती की, जो धृतराष्ट्र ने मान ली
थी।
राजा सुबाल के सबसे छोटे पुत्र कोई और नहीं, बल्कि शकुनि ही थे। शकुनि ने
अपनी आंखों के सामने अपने परिवार का अंत होते हुए देखा और अंत में शकुनि
जिंदा बच गए।
जब कौरवों में वरिष्ठ युवराज दुर्योधन ने यह देखा कि केवल शकुनि ही जीवित
बचे हैं तो उन्होंने पिता की आज्ञा से उसे क्षमा करते हुए अपने देश वापस
लौट जाने या फिर हस्तिनापुर में ही रहकर अपना राज देखने को कहा। शकुनि ने
हस्तिनापुर में रुकने का निर्णय लिया।
शकुनि ने हस्तिनापुर मैं सबका विश्वास जीत लिया और 100 कौरवों का अभिवावक
बन बैठा। अपने विश्वासपूर्ण कार्यों के चलते दुर्योधन ने शकुनि को अपना
मंत्री नियुक्त कर लिया।
सर्वप्रथम उसने गांधारी व धृतराष्ट्र को अपने वश में करके धृतराष्ट्र के
भाई पांडु के विरुद्ध षड्यंत्र रचने और राजसिंहासन पर धृतराष्ट्र का
आधिपत्य जमाने को कहा।
फिर धीरे-धीरे शकुनि ने दुर्योधन को अपनी बुद्धि के मोहपाश में बांध लिया।
शकुनि ने न केवल दुर्योधन को युधिष्ठिर के खिलाफ भड़काया बल्कि महाभारत के युद्ध की नींव भी रखी।
यह बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि शकुनि के पास जुआ खेलने के लिए जो पासे
होते थे वह उसके मृत पिता के रीढ़ की हड्डी के थे। अपने पिता की मृत्यु के
पश्चात शकुनि ने उनकी कुछ हड्डियां अपने पास रख ली थीं। शकुनि जुआ खेलने
में पारंगत था और उसने कौरवों में भी जुए के प्रति मोह जगा दिया था।
शकुनि की इस चाल के पीछे सिर्फ पांडवों का ही नहीं बल्कि कौरवों का भी
भयंकर विनाश छिपा था, क्योंकि शकुनि ने कौरव कुल के नाश की सौगंध खाई थी और
उसके लिए उसने दुर्योधन को अपना मोहरा बना लिया था। शकुनि हर समय बस मौकों
की तलाश में रहता था जिसके चलते कौरव और पांडवों में भयंकर युद्ध छिड़ें
और कौरव मारे जाएं।
जब युधिष्ठिर हस्तिनापुर का युवराज घोषित हुआ, तब शकुनि ने ही लाक्षागृह
का षड्यंत्र रचा और सभी पांडवों को वारणावत में जिंदा जलाकर मार डालने का
प्रयत्न किया। शकुनि किसी भी तरह दुर्योधन को हस्तिनापुर का राजा बनते
देखना चाहता था ताकि उसका दुर्योधन पर मानसिक आधिपत्य रहे और वह इस मुर्ख
दुर्योधन की सहायता से भीष्म और कुरुकुल का विनाश कर सके अतः उसने ही
पांडवो के प्रति दुर्योधन के मन में वैरभाव जगाया और उसे सत्ता का लोलुप
बना दिया।
शकुनि के कारण ही महाराज धृतराष्ट्र की ओर से पांडवों व कौरवों में होने
वाले विभाजन के बाद पांडवों को एक बंजर पड़ा क्षेत्र सौंपा गया था, लेकिन
पांडवों ने अपनी मेहनत से उसे इंद्रप्रस्थ में बदल दिया। युधिष्ठिर द्वारा
किए गए राजसूय यज्ञ के दौरान दुर्योधन को यह नगरी देखने का मौका मिला।
महल में प्रवेश करने के बाद एक विशाल कक्ष में पानी की उस भूमि को
दुर्योधन ने गलती से असल भूमि समझकर उस पर पैर रख दिया और वह उस पानी में
गिर गया। यह देख पांडवों की पत्नी द्रौपदी उन पर हंस पड़ीं और कहा कि ‘एक
अंधे का पुत्र अंधा ही होता है'। यह सुन दुर्योधन बेहद क्रोधित हो उठा।
दुर्योधन के मन में चल रही बदले की इस भावना को शकुनि ने हवा दी और इसी का
फायदा उठाते हुए उसने पासों का खेल खेलने की योजना बनाई। उसने अपनी योजना
दुर्योधन को बताई और कहा कि तुम इस खेल में हराकर बदला ले सकते हो। खेल के
जरिए पांडवों को मात देने के लिए शकुनि ने बड़े प्रेम भाव से सभी पांडु
पुत्रों को खेलने के लिए आमंत्रित किया और फिर शुरू हुआ दुर्योधन व
युधिष्ठिर के बीच पासा फेंकने का खेल।
शकुनि पैर से लंगड़ा तो था, पर चौसर अथवा द्यूतक्रीड़ा में अत्यंत प्रवीण
था। उसकी चौसर की महारथ अथवा उसका पासों पर स्वामित्व ऐसा था कि वह जो
चाहता वे अंक पासों पर आते थे। एक तरह से उसने पासों को सिद्ध कर लिया था
कि उसकी अंगुलियों के घुमाव पर ही पासों के अंक पूर्वनिर्धारित थे।
खेल की शुरुआत में पांडवों का उत्साह बढ़ाने के लिए शकुनि ने दुर्योधन को
आरंभ में कुछ पारियों की जीत युधिष्ठिर के पक्ष में चले जाने को कहा जिससे
कि पांडवों में खेल के प्रति उत्साह उत्पन्न हो सके। धीरे-धीरे खेल के
उत्साह में युधिष्ठिर अपनी सारी दौलत व साम्राज्य जुए में हार गए।
अंत में शकुनि ने युधिष्ठिर को सब कुछ एक शर्त पर वापस लौटा देने का वादा
किया कि यदि वे अपने बाकी पांडव भाइयों व अपनी पत्नी द्रौपदी को दांव पर
लगाएं। मजबूर होकर युधिष्ठिर ने शकुनि की बात मान ली और अंत में वे यह पारी
भी हार गए। इस खेल में पांडवों व द्रौपदी का अपमान ही कुरुक्षेत्र के
युद्ध का सबसे बड़ा कारण साबित हुआ।
अंत में कैसे अंत हुआ शकुनि का...
कुरुक्षेत्र के युद्ध में शकुनि ने दुर्योधन का साथ दिया था। शकुनि जितनी
नफरत कौरवों से करता था उतनी ही पांडवों से, क्योंकि उसे दोनों की ओर से
दुख मिला था। पांडवों को शकुनि ने अनेक कष्ट दिए। भीम ने इसे अनेक अवसरों
पर परेशान किया। महाभारत युद्ध में सहदेव ने शकुनि का इसके पुत्र सहित वध कर दिया।
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