कर्ण की पांच गलतियां और वह मारा गया...

कर्ण की पांच गलतियां और वह मारा गया...

इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि महाभारत के प्रसिद्ध योद्धा और अंतिम दिनों में कौरवों की सेना के सेनापति कर्ण अपने प्रतिद्वंदी अर्जुन से श्रेष्ठ धनुर्धर थे जिसकी तारीफ भगवान श्रीकृष्ण ने भी की। लेकिन कहते हैं कि कुसंगत का असर बहुत घातक होता है। बहुत कम लोग ही होते हैं जो कमल के समान होते हैं। इस कुसंगत के चलते ही कर्ण कई बार गलतियां करते गए। उनकी इन्हीं गलतियों ने कौरवों और पांडवों के युद्ध में उनको कमजोर बना दिया था।

महाभारत युद्ध में कर्ण सबसे शक्तिशाली योद्धा माने जाते हैं। कर्ण को किस तरह से काबू में रखा जाए, यह कृष्ण के लिए भी चिंता का विषय हो चला था। लेकिन कर्ण दानवीर, नैतिक और संयमशील व्यक्ति थे। ये तीनों ही बातों उनके विपरीत पड़ गईं। कैसे?

कर्ण के बारे में सभी जानते हैं कि वे सूर्य-कुंती पुत्र थे। उनके पालक माता-पिता का नाम अधिरथ और राधा था। उनके गुरु परशुराम और मित्र दुर्योधन थे। हस्तिनापुर में ही कर्ण का लालन-पालन हुआ। उन्होंने अंगदेश के राजसिंहासन का भार संभाला था। जरासंध हो हराने के कारण उनको चंपा नगरी का राजा बना दिया गया था।

पहली गलती...

ब्रह्मास्त्र : उस काल में द्रोणाचार्य, परशुराम और वेदव्यास को ही ब्रह्मास्त्र चलाना और किसी के द्वारा ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किए जाने पर उसे असफल कर देना याद था। उन्होंने यह विद्या अपने कुछ खास शिष्यों को ही प्रदान की थी। उसमें भी किस तरह ब्रह्मास्त्र को असफल करना, यह कम ही शिष्यों को याद था।

जब द्रोणाचार्य ने कर्ण के सूत पुत्र होने को जानकर ब्रह्मास्त्र विद्या सिखाने से इंकार कर दिया, तब वे परशुराम के पास पहुंच गए। परशुराम ने प्रण लिया था कि वे इस विद्या को किसी ब्राह्मण को ही सिखाएंगे, क्योंकि इस विद्या के दुरुपयोग का खतरा बढ़ गया था।

कर्ण यह सीखना चाहता था तो उसने परशुराम के पास पहुंचकर खुद को ब्राह्मण का पुत्र बताया और उनसे यह विद्या सीख ली। परशुराम ने ब्रह्मास्त्र के अलावा कर्ण को अन्य सभी अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा दी थी।

फिर एक दिन जंगल में कहीं जाते हुए परशुरामजी को थकान महसूस हुई, उन्होंने कर्ण से कहा कि वे थोड़ी देर सोना चाहते हैं। कर्ण ने उनका सिर अपनी गोद में रख लिया। परशुराम गहरी नींद में सो गए। तभी कहीं से एक कीड़ा आया और वह कर्ण की जांघ पर डंक मारने लगा। कर्ण की जांघ पर घाव हो गया। लेकिन परशुराम की नींद खुल जाने के भय से वह चुपचाप बैठा रहा, घाव से खून बहने लगा।

बहते खून ने जब परशुराम को छुआ तो उनकी नींद खुल गई। उन्होंने कर्ण से पूछा कि तुमने उस कीड़े को हटाया क्यों नहीं? कर्ण ने कहा कि आपकी नींद टूटने का डर था इसलिए। परशुराम ने कहा कि किसी ब्राह्मण में इतनी सहनशीलता नहीं हो सकती है। तुम जरूर कोई क्षत्रिय हो। सच-सच बताओ। तब कर्ण ने सच बता दिया।

क्रोधित परशुराम ने कर्ण को उसी समय शाप दिया कि तुमने मुझसे जो भी विद्या सीखी है वह झूठ बोलकर सीखी है इसलिए जब भी तुम्हें इस विद्या की सबसे ज्यादा आवश्यकता होगी, तभी तुम इसे भूल जाओगे। कोई भी दिव्यास्त्र का उपयोग नहीं कर पाओगे।

लेकिन अब सवाल यह उठता है कि यदि वह झूठ नहीं बोलता तो सच बताकर क्या परशुराम उसे विद्या सिखाते? नहीं सिखाते...। तब वे किससे सीखते? निश्‍चित ही यह भूल थी लेकिन भूल नहीं भी थी।
दूसरी गलती..

कवच और कुंडल : भगवान कृष्ण यह भली-भांति जानते थे कि जब तक कर्ण के पास उसका कवच और कुंडल है, तब तक उसे कोई नहीं मार सकता। ऐसे में अर्जुन की सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं। उधर देवराज इन्द्र भी चिंतित थे, क्योंकि अर्जुन उनका पुत्र था। भगवान कृष्ण और देवराज इन्द्र दोनों जानते थे कि जब तक कर्ण के पास पैदायशी कवच और कुंडल हैं, वह युद्ध में अजेय रहेगा।

तब कृष्ण ने देवराज इन्द्र को एक उपाय बताया और फिर देवराज इन्द्र एक ब्राह्मण के वेश में पहुंच गए कर्ण के द्वार। देवराज भी सभी के साथ लाइन में खड़े हो गए। कर्ण सभी को कुछ न कुछ दान देते जा रहे थे। बाद में जब देवराज का नंबर आया तो दानी कर्ण ने पूछा- विप्रवर, आज्ञा कीजिए! किस वस्तु की अभिलाषा लेकर आए हैं?

विप्र बने इन्द्र ने कहा, हे महाराज! मैं बहुत दूर से आपकी प्रसिद्धि सुनकर आया हूं। कहते हैं कि आप जैसा दानी तो इस धरा पर दूसरा कोई नहीं है। तो मुझे आशा ही नहीं विश्‍वास है कि मेरी इच्छित वस्तु तो मुझे अवश्य आप देंगे ही।‍ फिर भी मन में कोई शंका न रहे इसलिए आप संकल्प कर लें तब ही मैं आपसे मांगूंगा अन्यथा आप कहें तो में खाली हाथ चला जाता हूं?

तब ब्राह्मण के भेष में इन्द्र ने और भी विनम्रतापूर्वक कहा- नहीं-नहीं राजन! आपके प्राण की कामना हम नहीं करते। बस हमें इच्छित वस्तु मिल जाए, तो हमें आत्मशांति मिले। पहले आप प्रण कर लें तो ही मैं आपसे दान मांगू।

कर्ण ने तैश में आकर जल हाथ में लेकर कहा- हम प्रण करते हैं विप्रवर! अब तुरंत मांगिए। तब क्षद्म इन्द्र ने कहा- राजन! आपके शरीर के कवच और कुंडल हमें दानस्वरूप चाहिए।

एक पल के लिए सन्नाटा छा गया। कर्ण ने इन्द्र की आंखों में झांका और फिर दानवीर कर्ण ने बिना एक क्षण भी गंवाएं अपने कवच और कुंडल अपने शरीर से खंजर की सहायता से अलग किए और ब्राह्मण को सौंप दिए।

इन्द्र ने तुंरत वहां से दौड़ ही लगा दी और दूर खड़े रथ पर सवार होकर भाग गए। इसलिए क‍ि कहीं उनका राज ‍खुलने के बाद कर्ण बदल न जाए। कुछ मील जाकर इन्द्र का रथ नीचे उतरकर भूमि में धंस गया। तभी आकाशवाणी हुई, 'देवराज इन्द्र, तुमने बड़ा पाप किया है। अपने पुत्र अर्जुन की जान बचाने के लिए तूने छलपूर्वक कर्ण की जान खतरे में डाल दी है। अब यह रथ यहीं धंसा रहेगा और तू भी यहीं धंस जाएगा।'

तब इन्द्र ने आकाशवाणी से पूछा, इससे बचने का उपाय क्या है? तब आकाशवाणी ने कहा- अब तुम्हें दान दी गई वस्तु के बदले में बराबरी की कोई वस्तु देना होगी। इन्द्र क्या करते, उन्होंने यह मंजूर कर लिया। तब वे फिर से कर्ण के पास गए। लेकिन इस बार ब्राह्मण के वेश में नहीं। कर्ण ने उन्हें आता देखकर कहा- देवराज आदेश करिए और क्या चाहिए?

इन्द्र ने झेंपते हुए कहा, हे दानवीर कर्ण अब मैं याचक नहीं हूं बल्कि आपको कुछ देना चाहता हूं। कवच-कुंडल को छोड़कर मांग लीजिए, आपको जो कुछ भी मांगना हो।

कर्ण ने कहा- देवराज, मैंने आज तक कभी किसी से कुछ नही मांगा और न ही मुझे कुछ चाहिए। कर्ण सिर्फ दान देना जानता है, लेना नहीं।

तब इन्द्र ने विनम्रतापूर्वक कहा- महाराज कर्ण, आपको कुछ तो मांगना ही पड़ेगा अन्यथा मेरा रथ और मैं यहां से नहीं जा सकता हूं। आप कुछ मांगेंगे तो मुझ पर बड़ी कृपा होगी। आप जो भी मांगेंगे, मैं देने को तैयार हूं।

कर्ण ने कहा- देवराज, आप कितना ही प्रयत्न कीजिए लेकिन मैं सिर्फ दान देना जानता हूं, लेना नहीं। मैंने जीवन में कभी कोई दान नहीं लिया।

तब लाचार इन्द्र ने कहा- मैं यह वज्ररूपी शक्ति आपको बदले में देकर जा रहा हूं। तुम इसको जिसके ऊपर भी चला दोगे, वो बच नहीं पाएगा। भले ही साक्षात काल के ऊपर ही चला देना, लेकिन इसका प्रयोग सिर्फ एक बार ही कर पाओगे।

कर्ण कुछ कहते उसके पहले ही देवराज वह वज्र शक्ति वहां रखकर तुरंत भाग लिए। कर्ण के आवाज देने पर भी वे रुके नहीं। बाद में कर्ण को उस वज्र शक्ति को अपने पास मजबूरन रखना पड़ा। लेकिन जैसे ही दुर्योधन को मालूम पड़ा कि कर्ण ने अपने कवच-कुंडल दान में दे दिए हैं, तो दुर्योधन को तो चक्कर ही आ गए। उसको हस्तिनापुर का राज्य हाथ से जाता लगने लगा। लेकिन जब उसने सुना कि उसके बदले वज्र शक्ति मिल गई है तो फिर से उसकी जान में जान आई।

अब इसे भी कर्ण की गलती नहीं मान सकते। यह उसकी मजबूरी थी। लेकिन उसने यहां गलती यह की कि वह इन्द्र से कुछ मांग ही लेता। नहीं मांगने की गलती तो गलती ही है। अरे, वज्र शक्ति को तीन बार प्रयोग करने की इच्छा ही व्यक्त कर देता।
तीसरी गलती...

सर्प और कर्ण : अब यह कथा कितनी सच है, इस पर तो शोध होना चाहिए, क्योंकि यह लोककथा पर आधारित है। माना जाता है कि युद्ध के दौरान कर्ण के तूणीर में कहीं से एक बहुत ही जहरीला सर्प आकर बैठ गया। तूणीर अर्थात जहां तीर रखते हैं। यह पीछे पीठ पर बंधी होती है। कर्ण ने जब एक तीर निकालना चाहा तो तीर की जगह यह सर्प उनके हाथ में आ गया।

कर्ण ने पूछा, तुम कौन हो और यहां कहां से आ गए। तब सर्प ने कहा, हे दानवीर कर्ण, मैं अर्जुन से बदला लेने के लिए आपके तूणीर में जा बैठा था। कर्ण ने पूछा, क्यों? इस पर सर्प ने कहा, राजन! एक बार अर्जुन ने खांडव वन में आग लगा दी थी। उस आग में मेरी माता जलकर मर गई थी, तभी से मेरे मन में अर्जुन के प्रति विद्रोह है। मैं उससे प्रतिशोध लेने का अवसर देख रहा था। वह अवसर मुझे आज मिला है। कुछ रुककर सर्प फिर बोला, आप मुझे तीर के स्थान पर चला दें। मैं सीधा अर्जुन को जाकर डस लूंगा और कुछ ही क्षणों में उसके प्राण-पखेरू उड़ जाएंगे।

सर्प की बात सुनकर कर्ण सहजता से बोले, हे सर्पराज, आप गलत कार्य कर रहे हैं। जब अर्जुन ने खांडव वन में आग लगाई होगी तो उनका उद्देश्य तुम्हारी माता को जलाना कभी न रहा होगा। ऐसे में मैं अर्जुन को दोषी नहीं मानता। दूसरा अनैतिक तरह से विजय प्राप्त करना मेरे संस्कारों में नहीं है इसलिए आप वापस लौट जाएं और अर्जुन को कोई नुकसान न पहुंचाएं। सर्प वहां से उड़ गया और कर्ण को अपने प्राण गंवाने पड़े।

चौथी गलती.

ब्राह्मण का शाप : परशुरामजी के आश्रम से शिक्षा ग्रहण करने के बाद कर्ण वन में भटक रहे थे। इस दौरान वे शब्दभेदी विद्या सीख रहे थे। एक दिन जब वे इस विद्या का अभ्यास कर रहे थे तब उन्होंने एक गाय के बछड़े को अन्य वन्य पशु समझकर शब्दभेदी बाण चला दिया और उस बाण से बछडा़ मारा गया।

तब उस गाय-बछड़े के स्वामी ब्राह्मण ने कर्ण को शाप दे दिया कि जिस प्रकार उसने एक असहाय बछड़े को मारा है, वैसे ही एक दिन वह भी तब मारा जाएगा जबकि वह खुद को असहाय महसूस करेगा और जब उसका सारा ध्यान अपने शत्रु से कहीं अलग किसी और काम पर होगा।

हुआ भी यही था कि जब कर्ण का अर्जुन से घोर युद्ध चल रहा था ‍तब उसके रथ का पहिया बार-बार भूमि में धंस जाता था और वह उसे निकालकर फिर से युद्ध करने लगता था। ऐसे समय में जब फिर से उसके रथ का पहिया भूमि में धंस गया तब वह फिर से उसे निकालने लगा और उसे उस समय घबराहट भी हो रही थी व उसका सारा ध्यान युद्ध के अलावा पहिए पर चला गया था। वह खुद को असहाय महसूस कर रहा था। ऐसे मौके का लाभ उठाकर अर्जुन ने कर्ण को मार दिया।

पांचवीं गलती...
कुंती को दिया वचन : एक बार कुंती कर्ण के पास गई और उससे पांडवों की ओर से लड़ने का आग्रह करने लगी। कर्ण को मालूम था कि कुंती मेरी मां है। कुंती के लाख समझाने पर भी कर्ण नहीं माने और कहा कि जिनके साथ मैंने अब तक का अपना सारा जीवन बिताया उसके साथ मैं विश्‍वासघात नहीं कर सकता।

तब कुंती ने कहा कि क्या तुम अपने भाइयों को मारोगे? इस पर कर्ण ने बड़ी ही दुविधा की स्थिति में वचन दिया, 'माते, तुम जानती हो कि कर्ण के यहां याचक बनकर आया कोई भी खाली हाथ नहीं जाता अत: मैं तुम्हें वचन देता हूं कि अर्जुन को छोड़कर मैं अपने अन्य भाइयों पर शस्त्र नहीं उठाऊंगा।'



 

2 comments:

  1. bisariya ji aap faaltoo me apna adhoora gyan ka prachar kar rahe hai thoda aur padiye tab aapko pata lagega ki arjun aur karn ka 16 baar aamna saamna hua hai har baar karn haara hai

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  2. ध्यान देने योग्य बात ये है कि कर्ण ने इंद्र से बदले में वासवास्त्र क्यों मांगा ? केवल कवच और कुंडल ही तो जा रहे थे । उसके पास विजय धनुष, भार्गवास्त्र, नागास्त्र आदि तो थे ही । अगर वो अर्जुन से श्रेष्ठ धनुर्धर था तो फिर उसे अर्जुन को मारने के लिए इंद्र के वासवास्त्र की क्या आवश्यकता आ पड़ी थी ?
    अर्जुन इंद्र का पुत्र था सो आवश्यकता पड़ने पर इंद्र वासवास्त्र भी अर्जुन को ही देता न की कर्ण को । अतः इंद्र से वासवास्त्र मांग कर कर्ण ने भी अर्जुन को कमज़ोर करने का ही प्रयास किया । उसके पिता से अस्त्र मांग कर उसे ही मारने की योजना बना ली । कवच और कुंडल तो कर्ण को पहले के युद्धों मे कई बार हारने से नहीं बचा सका था लेकिन वासवास्त्र ने तो घटोत्कच से उसकी जान बचाई थी । वहां वासवास्त्र उसके लिये अधिक कारगर साबित हुआ था । अतः ये घाटे का सौदा नहीं था । यहां ये भी स्पष्ट होता है कि भार्गवास्त्र तथा कर्ण के अन्य दिव्यास्त्र उस समय घटोत्कच को मारने के लिए प्रयाप्त नहीं थे ।
    कौरवों के पास पांडवों से बड़ी सेना थी । फिर भी उन्होंने पांडवों के बहुत से समर्थकों को अपनी ओर मिलाने का प्रयास किया और शल्य और यादवों के एक धड़े को अपनी ओर मिला भी लिया । भला भीष्म, द्रोण, कर्ण और अश्वत्थामा जैसे योद्धाओं से सुसज्जित सेना के लिए इसकी क्या आवश्यकता थी ?
    अर्जुन से अंतिम युद्ध से ठीक पहले कर्ण ने अश्वत्थामा आदि पाँच कौरव योद्धाओं को उसे थकाने के लिए भेजा ताकि कर्ण युद्ध में थके हुए अर्जुन को मार सके । अगर कर्ण को अपनी जीत का इतना ही भरोसा था तो उसे ये सब करने की क्या आवश्यकता थी ? अभिमन्यु को मारने के लिए भी अर्जुन को उससे दूर ले जाकर उसपर सामुहिक आक्रमण क्यों करना पड़ा ? कर्ण उसे उसी प्रकार अर्जुन के सामने मार सकता था जिस प्रकार अर्जुन ने कर्ण के सामने वृषसेन को मारा था ।
    जब युद्ध होने वाला होता है तो दोनों तरफ से दांव पेंच लगाए जाते हैं । दोनों पक्ष एक-दुसरे की शक्ति को क्षीण करने का प्रयास करता ही है । ये रणनीति का ही एक हिस्सा होता है । युद्ध में किसी भी शत्रु को कमज़ोर समझना और अपनी जीत को पहले से ही पक्का मान लेना मूर्खता होती है।

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